Monday, June 25, 2018

आँगन और नीम

आँगन से नीम ही नहीं दूर हुयी
आँगन भी नीमन न रहा।
सूरज की किरणें झाँक सकें
वैसा घर-आँगन न रहा।
कृत्रिम प्रकाश की चकाचौंध से
आँख चौंधियायी है।
सूरज कब निकलता
यह बात अब पुरानी है।
हवा और पानी सब
बहुत सुलभ लगते हैं।
बिजली के बल पर
हवा बहती नल चलते हैं।
पानी के प्रवाह को अब
देखने की चाह किसे।
तो आखिर व्यक्ति अब
नदियों को राह क्यों दे?
कूड़ों का पहाड़ रोज
घर से निकलता है।
सुदूर महानगर की सीमा पर
नया पहाड़ उगता है।
नाक बन्द कर बड़बड़ाते हुये हम
तेजी से नजर हटा निकल जाते हैं
कूड़े पर चन्द शब्द कह
सभ्यों के मध्य सभ्य कहाते हैं।
यह आँगन के नीम नहीं
अस्तित्व का प्रश्न है।
पर हम क्यों समझेंगे जब
मन सभ्य बनने में मग्न है।
बिना नींव के हमारी दीवार बनी है।
इसलिये रीढ़विहीन हम और हमारी
आज प्रकृति से ठनी है।
तूफानों में मुँह छुपाते हैं
समस्याओं में शुतुरमुर्ग बन जाते हैं
फिर भी अपने सभ्य होने
और अपनी आततायी
 सभ्यता पर इतराते हैं।

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