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यथार्थ
रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...
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माँ-बाप का दुत्कारत हैं औ कूकुर-बिलार दुलारत हैं यहि मेर पुतवै पुरखन का नरक से तारत है ड्यौढ़ी दरकावत औ ढबरी बुतावत है देखौ कुलदीपकऊ ...
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घर भरा, आँगन भरा है। पूरा जनसमुदाय खड़ा है। फिर कुछ अभी अधूरा है पैजनियाँ बिन सब सूना है।। अधर-अधर पर हँसी बसी है हर मुख पर...
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खिड़कियों से झाँककर संसार निहारें हम ऐसा हमारे बड़ों ने संसार सौंपा है। अपनी भोगलिप्सा से पञ्चतत्त्व प्रदूषित कर हमें चुनौति...
4 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-06-2020) को "उलझा माँझा" (चर्चा अंक-3735) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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वाह
खिड़की से ही झाँकने की विरासत मिल रही है या निकट भविष्य में मिलने वाली है ..वहुत सही सटीक अभिव्यक्ति ..
हृदय स्पर्शी सृजन.खिड़की पर सिमटता बालपन यथार्थ सृजन .
सादर
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