Wednesday, July 2, 2014

वर्षाजल...

सुखकर है ये वर्षाजल,
उठतीँ गिरतीँ बूँदेँ चञ्चल।
आसमान के मेघकोष से
आतीँ देखो बूँदेँ छन-छन।।
यह बिन्दु-बिन्दु है नेह भरी,
अभिसिञ्चित जैसे स्नेह स्वजन।
वर्षोँ की लम्बी विरह-प्रतीक्षा,
अनुभव करती ज्योँ अपनापन।।

3 comments:

रविकर said...

बढ़िया प्रस्तुति-
आभार आदरणीया-

Asha Lata Saxena said...

बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना |

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sundar prasturi, sundar varsha jal !!

यथार्थ

रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...