Wednesday, December 3, 2014

पीढ़ियाँ क्षमा नहीं करेंगी...

स्पष्ट हस्ताक्षर बन करके
समय की शुष्क शिला पर
नाम-रूप-अस्तित्त्व मिटाकर
छोड़ गये तुम मानवता का
सहज जटिल प्रश्न धरा पर॥
आँखों के आँसू सूखे थे,

पलकों के पट रूखे थे,

हृदयों में था हाहाकार
व्यथा वेदना पारावार॥
वह भी एक धधक उठी थी
श्वासों की हर धौंक रुकी थी।
काल के पास न काल था इतना
कि मन में कोई विचार उठे,
कोई चीख-पुकार उठे।
महाभयंकर क्रूर कथा है,
मानव ने ही स्वयं रचा है॥
कसीदों में मलमल में सोने वालों
खून पसीना पीने वालों
तेरी करनी को भुगते वे,
अंगार आज भी सुलगते वे,
हरे रहेंगे घाव सदा ये,
तने रहेंगी भृकुटी-भृकुटी।
रहेगी याद दिलाती
बिकते जीवन-मूल्यों की,
पहचान बनी भोपाल त्रासदी॥

4 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 4-12-2014 को चर्चा मंच पर गैरजिम्मेदार मीडिया { चर्चा - 1817 } में दिया गया है
धन्यवाद

कालीपद "प्रसाद" said...

बहुत मार्मिक !
ऐ भौंरें ! सूनो !

Sadhana Vaid said...

हृदय को झकझोर देने वाली स्मृतियाँ जुडी है इस हादसे से ! इस दुखद हादसे के लिये ना कोई सम्वेदना और सहानुभूति के शब्द काफी हैं ना ही कोई मरहम यथोचित है ! बस एक गहन उदासी है जो मन मस्तिष्क पर छा जाती है !

Unknown said...

bahut vedanapurn .....marmsparshi

यथार्थ

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