Sunday, January 4, 2015

सहमीं दोपहरें हैं

चिरागों के शहर में अंधेरा छाया है।
चुपके से कहीं कोई बहुरूपिया आया है।
आफताब की जरूरत भी ज़रा मन्द है,
जुगुनुओं की रोशनी में सूरज चौंंधियाया है।।
शागिर्द बेबस है, बदतमीज हैं नज़रें।
नजरों की अठखेलियों पर कड़े पहरे हैं,
रात के अंधेरे साये में रहने को मजबूर,
सूरज की रोशनी में भी सहमीं दोपहरें हैं।

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