Wednesday, January 7, 2015

विस्तीर्ण सिन्धु

चमकतीं ताराओं सी आँखें
आंखों में अतुलित विश्वास।
सैकत पर फैली चन्द्रिका
स्नेह सिक्त हास-परिहास।
सागर लघु-दीर्घ तरंगों औ
आघूर्णों आवर्तों का वास।
झलकता इसकी वीथी से
सदियों से संचित विश्वास।
कोई नही तरल है उससे,
कोई नहीं सरल है उससे,
यह विस्तीर्ण सिन्धु उसका प्रकाश॥

1 comment:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 8-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1852 में दिया गया है
धन्यवाद

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