वह घूर अच्छा था, बेहतर था
जो खेत की खाद बनता था
अपनी उर्वरा शक्ति से
धरती उर्वर करता था।
किसान जिसकी तरफ
आशान्वित हो देखता था
उसके मन में पूरा फसल चक्र
हरीतिमा के साथ बसता था।।
वह घूर अच्छा था
कूड़े करकट को भी मूल्य देना
त्यक्त-परित्यक्त का मूल्य समझना
अनपढ़ किसान को बेहतर आता था
वह घूर अच्छा था।
कूड़े का बेहतर सदुपयोग
और वातावरण की स्वच्छता
बरसात में टपकते खपरैल में
रहने वाले किसान को पता था।
वह रिसाइकलिंग जानने के लिए
कभी स्कूल काॅलेज नहीं गया था
पर कूड़े करकट का निष्पादन
और पुनर्चक्रण उसे भलीभांति पता था।।
अब खाद भी बाजार की गुलाम है
खेत भी बाजारू खाद के जद में है
इसीलिए घूर नहीं कूड़ा नहीं
हम कूड़ों के हिमालयी कैद में हैं।
अब न हमें कूड़ा फैलाते चिंता होती है
न ही उसे फेंकते संवेदना जागती है
और न ही हम जानना चाहते हैं कि
हमारे कूड़े की क्या गति होती है?
बस कभी विवश हो सामना होने पर
नाक सिकोडकर रुमाल रखें लेते हैं
प्रशासन और सरकार को
चार जलते हुये शब्द कह लेते है
शब्दों में कोसकर भर्त्सना कर
अपने कर्तव्य से पलड़ा झाड़ लेते हैं।
हमसे बेहतर तो अनपढ़ हैं
हम तो बस शुतुरमुर्ग बने फिरते हैं
और सभ्य होने का अभिनय भर करते हैं।
जबकि सभ्यता सड़ चुकी है
तहजीब को दीमक लग गया है
ऊँची उड़ान के चक्कर पैर
जमीन पर से बहक गया है।
हम बहुत स्वांग भरते हैं स्वच्छ रहने की
जबकि हमारा मन और परिवेश मलिन है
सभ्यता के तथाकथित ऊँचाईयाँ चढकर भी
हमारा वर्तमान और भविष्य मलिन है।
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