कुछ बातें हैं
जिन्हें हजम करने का
स्वीकारने का
दम्भ तो लोग भरते हैं
दिखावा भी करते हैं
पर वे कभी आचरण में
उतर नहीं पातीं
व्यवहार में दिख नहीं पातीं
और शब्दों में
अभिव्यक्त हो निखर नहीं पातीं।
समय के साथ चलने का
'आधुनिक' दिखने का
'मुक्त मानस' का स्वामी होने का
दिखावा करने वाले लोग
वस्तुतः आगे मुँह किये
पैरों को पीछे
लौटाते हैं
इस तरह चलते हुये
वास्तविकता से
सदाशयता से
मुक्त मन से
बहुत दूर चले जाते हैं।
अपने कपड़े तो वे
सफेद कर लेते हैं
पर मन और
वाणी की गंदगी
ढोते रहते हैं।
आगे चलने पर
बिराते रहते हैं
पीछे चलने पर
मटकाते रहते हैं।
ऐसे लोगों को बदहजमी होती है
महिलाओं, लड़कियों की
हँसी से।
बहुओं के
घूँघटरहित मुखमंडल से
और उन माता-माता पिता से
जो अपने पुत्र-पुत्रियों में
कोई भेद नहीं करते
पुत्रियों के आगे
भय की कोई
दीवार नहीं खड़ी करते।
और बात-बात पर ये
नसीहत नहीं देते
कि तुम्हें पराये घर जाना है।
समाज के ढकोसलेबाज
और रंगे सियार
जो अपनी बेटियों को
मिड डे मील वाले
प्राथमिक विद्यालय में भेजते हैं।
पग-पग पर
उन्हें बोझ होंने का एहसास
दिलाते हैं।
और अपने कुलतारक बेटों को
फर्राटेदार अंग्रेजी वाले स्कूल में
सूट-बूट से सजाकर भेजते हैं।
उन्हें लड़कियों का
तर्क-वितर्क
और प्रत्युत्तर कभी
स्वीकार नहीं होता।
उनकी अधिकारों के प्रति जागरूकता
देखी नहीं जाती।
और धूँ-धूँ करके
जल उठते हैं।
मन ही मन सुलग उठते हैं।
प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं बोल पाते
क्योंकि तथाकथित सभ्यता का
लबादा ओढ़े है।
पर पीठ पीछे
ऐसे लोग
महिलायें और पुरुष
प्रपंच-रस द्वारा
अपने हृदय की आग
बुझाते रहते हैं।
आगे मुँह किये
पीछे की ओर चलते हुये
भूत जैसे
पीछे स्वयं को
ढकेलते रहते हैं।
और समाज को
खासकर महिलाओं को
सशक्त करने का दम्भ
भरते रहते हैं।
वस्तुतः वे अपने 'कंधे'
से ऊपर
कुछ देखना नहीं चाहते।
आज भी महिलाओं को
कंधे का सहारा
लेते देखना चाहते हैं।
और लपककर सहारा देना
चाहते हैं।
पर महिला
किसी की पुत्री
किसी की बहन
किसी की माँ
पिता का स्वाभिमान
माँ का वात्सल्य पा
आज 'कंधों से
आगे निकल चुकी है।
आगे बढ़ रही है।
स्वयं शीर्ष बन
अपने पैरों पर भार ले
अपने पैरों पर खड़ी हो रही है।
पर ध्यान रहे
महिला केवल
लता नहीं है
निराश्रिता नहीं है
वह आश्रय है
जहाँ मानव
बीज रूप में उगता है
और आगे बढ़ता है।
महिला लता भी है
अर्धलता भी है
कठोर तना वाला
विशाल पेड़ भी
भूमिका पेड़ जैसी हो
या लता जैसी
या दोनों
यह निर्णय उसकाहै।
और वो ये निर्णय
ले रही है
आगे बढ़ रही है
आसमान छू रही है।
अब वह तथाकथित
बहुमुँहे लोगों के
प्रपञ्च और बतकट्टै के
कीचड़ से ऊपर
उठ चुकी है।
वह कीचड़ में भी
कमल बन चुकी है।
झंझावात में
पीपल बन चुकी है।
विभेद बोने वालों के लिये
बाँस बन चुकी है।
वृक्षों को भी मात दे
ऐसी घास बन चुकी है।
हर प्रहार उसका
संवर्धन करता है।
हर वार उसमें
चेतना भरता है।
जिन्हें हजम करने का
स्वीकारने का
दम्भ तो लोग भरते हैं
दिखावा भी करते हैं
पर वे कभी आचरण में
उतर नहीं पातीं
व्यवहार में दिख नहीं पातीं
और शब्दों में
अभिव्यक्त हो निखर नहीं पातीं।
समय के साथ चलने का
'आधुनिक' दिखने का
'मुक्त मानस' का स्वामी होने का
दिखावा करने वाले लोग
वस्तुतः आगे मुँह किये
पैरों को पीछे
लौटाते हैं
इस तरह चलते हुये
वास्तविकता से
सदाशयता से
मुक्त मन से
बहुत दूर चले जाते हैं।
अपने कपड़े तो वे
सफेद कर लेते हैं
पर मन और
वाणी की गंदगी
ढोते रहते हैं।
आगे चलने पर
बिराते रहते हैं
पीछे चलने पर
मटकाते रहते हैं।
ऐसे लोगों को बदहजमी होती है
महिलाओं, लड़कियों की
हँसी से।
बहुओं के
घूँघटरहित मुखमंडल से
और उन माता-माता पिता से
जो अपने पुत्र-पुत्रियों में
कोई भेद नहीं करते
पुत्रियों के आगे
भय की कोई
दीवार नहीं खड़ी करते।
और बात-बात पर ये
नसीहत नहीं देते
कि तुम्हें पराये घर जाना है।
समाज के ढकोसलेबाज
और रंगे सियार
जो अपनी बेटियों को
मिड डे मील वाले
प्राथमिक विद्यालय में भेजते हैं।
पग-पग पर
उन्हें बोझ होंने का एहसास
दिलाते हैं।
और अपने कुलतारक बेटों को
फर्राटेदार अंग्रेजी वाले स्कूल में
सूट-बूट से सजाकर भेजते हैं।
उन्हें लड़कियों का
तर्क-वितर्क
और प्रत्युत्तर कभी
स्वीकार नहीं होता।
उनकी अधिकारों के प्रति जागरूकता
देखी नहीं जाती।
और धूँ-धूँ करके
जल उठते हैं।
मन ही मन सुलग उठते हैं।
प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं बोल पाते
क्योंकि तथाकथित सभ्यता का
लबादा ओढ़े है।
पर पीठ पीछे
ऐसे लोग
महिलायें और पुरुष
प्रपंच-रस द्वारा
अपने हृदय की आग
बुझाते रहते हैं।
आगे मुँह किये
पीछे की ओर चलते हुये
भूत जैसे
पीछे स्वयं को
ढकेलते रहते हैं।
और समाज को
खासकर महिलाओं को
सशक्त करने का दम्भ
भरते रहते हैं।
वस्तुतः वे अपने 'कंधे'
से ऊपर
कुछ देखना नहीं चाहते।
आज भी महिलाओं को
कंधे का सहारा
लेते देखना चाहते हैं।
और लपककर सहारा देना
चाहते हैं।
पर महिला
किसी की पुत्री
किसी की बहन
किसी की माँ
पिता का स्वाभिमान
माँ का वात्सल्य पा
आज 'कंधों से
आगे निकल चुकी है।
आगे बढ़ रही है।
स्वयं शीर्ष बन
अपने पैरों पर भार ले
अपने पैरों पर खड़ी हो रही है।
पर ध्यान रहे
महिला केवल
लता नहीं है
निराश्रिता नहीं है
वह आश्रय है
जहाँ मानव
बीज रूप में उगता है
और आगे बढ़ता है।
महिला लता भी है
अर्धलता भी है
कठोर तना वाला
विशाल पेड़ भी
भूमिका पेड़ जैसी हो
या लता जैसी
या दोनों
यह निर्णय उसकाहै।
और वो ये निर्णय
ले रही है
आगे बढ़ रही है
आसमान छू रही है।
अब वह तथाकथित
बहुमुँहे लोगों के
प्रपञ्च और बतकट्टै के
कीचड़ से ऊपर
उठ चुकी है।
वह कीचड़ में भी
कमल बन चुकी है।
झंझावात में
पीपल बन चुकी है।
विभेद बोने वालों के लिये
बाँस बन चुकी है।
वृक्षों को भी मात दे
ऐसी घास बन चुकी है।
हर प्रहार उसका
संवर्धन करता है।
हर वार उसमें
चेतना भरता है।
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