जीवन के उस पड़ाव पर
जब ज्ञानेन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं
कर्मेन्द्रियाँ जीर्ण हो जाती हैं।
तब उभयेन्द्रिय मन
और भी उत्सुक हो
उत्फुल्ल हो
इच्छाओं को
उड़ेलने लगता है
आकांक्षाओं को कुरेदने लगता है
सुप्त लालसाओं को
जगाने लगता है।
इसलिये ज्ञानेन्द्रियों
और कर्मेन्द्रियों की
सबलतम स्थिति में
इन पर नियंत्रण आवश्यक है।
अन्यथा मन तो चंचल है
इच्छाओं का सर्जक है
वाहक है।
@ममतात्रिपाठी
जब ज्ञानेन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं
कर्मेन्द्रियाँ जीर्ण हो जाती हैं।
तब उभयेन्द्रिय मन
और भी उत्सुक हो
उत्फुल्ल हो
इच्छाओं को
उड़ेलने लगता है
आकांक्षाओं को कुरेदने लगता है
सुप्त लालसाओं को
जगाने लगता है।
इसलिये ज्ञानेन्द्रियों
और कर्मेन्द्रियों की
सबलतम स्थिति में
इन पर नियंत्रण आवश्यक है।
अन्यथा मन तो चंचल है
इच्छाओं का सर्जक है
वाहक है।
@ममतात्रिपाठी
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