Wednesday, May 14, 2014

मतपत्रों से बोल रही वह

जनमन की जो सोच रही वह
अर्गनी पर अबकी न लटकी।
गुलेल की गोली अबकी
फुनगी पर फिरसे न अटकी॥
लौट-लौटकर सिर फोड़ेगी।
वर्षों की जड़ता तोड़ेगी॥
मौन-मुखर जो रहा भाव हो,
निज स्वभाव पट खोल रही वह।
मुँह से बोले न बोले
मतपत्रों से बोल रही वह॥

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (15-05-2014) को बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का { चर्चा - 1613 } (चर्चा मंच 1610) पर भी है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कौशल लाल said...

बहुत सुन्दर ....

कविता रावत said...

आईना हैं मतपत्र जिसमें असली चेहरा साफ़ नज़र आता है
........बहुत बढ़िया

यथार्थ

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