Sunday, November 23, 2014

कर रहे निरन्तर श्रम वे, बिना स्वप्न-संसार लिये...

चेहरे पर मुस्कान बिखेरे,
शिकन और थकान समेटे।
गौरव भाव भरा नेत्रों में,
मानों हिन्दुस्थान समेटे।।
चलते जाते पगडंडी सड़कों पर,
नित नव उत्थान समेटे।
अन्धकार की बेला में भी,
नया विहान वितान समेटे॥
नहीं म्लानता उस चेहरे पर,
नहीं कोई उतावलापन।
चलना नियति मान बैठा है,
बचपन का यह नन्हामन॥
यह निश्चलता जीवन की
निश्छलता उस सादे मन की।
विना आयु के वयोवृद्ध सी,
किलकारियाँ बचपन की॥
नहीं शिकायत और उलाहना,
किसी से न कुछ कहना।
ले नियतितूलिका निज हाथों,
अपना भविष्य न  जाना गढ़ना ॥
नन्हीं अधखुली अंजुरियों में,
पेट भरने के औजार लिये।
कर रहे निरन्तर श्रम वे,
बिना स्वप्न-संसार लिये॥
लौटनी चाहिये इन रुक्ष-पीत
हथेलियों की गुलाबी आभा ।
इन मणियों से ही बढ़ेगी
माँ भारती की शीश-शोभा।।

4 comments:

रविकर said...

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवार के - चर्चा मंच पर ।।

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बढ़िया

प्रभात said...

सुदर प्रस्तुति ........अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर......धन्यवाद पढ़वाने के लिए!

Madan Mohan Saxena said...

सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें

यथार्थ

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