Friday, March 4, 2016

अर्चि के उज्ज्वल भविष्य हित स्वयं जलना आँच सा

कई बार जग की ड्योढ़ी पर
अनन्त दीप के हित
जलकर बुझ जाना होता है।
सञ्जीवनी दिन को देने हित
बलिदान बहाना होता है।।
लौ बन सके कोई इसलिए
चिन्गारी बनना पड़ता है।
लोहे को गला ढाल सके
फौलाद बन सुलगना पड़ता है।
शस्य श्यामला फसल हेतु
कभी खाद बनना पड़ता है।
किसी के उत्थान हित
दिनरात जलना पड़ता है।।
परीक्षा की घड़ी होती
सामने अपने ही होते।
आँख में जो हैं तुम्हारे
उनके वही सपने भी होते।।
तोड़ना पड़ता स्वप्न को
एक भंगुर काँच सा
अर्चि के उज्ज्वल भविष्य हित
स्वयं जलना आँच सा।।
हर बार लगता हम जले हैं।
पहले हैं जो इस ओर चले हैं।
पर अगर हम झाँकते हैं
अतीत के बिखरे गह्वर में।
तब हम ये जानते हैं
परिपाटी है यह सदियों पुरानी।
ठहरे हैं हम प्रथम प्रहर में।।
लोग ऐसे भी हुये हैं।
उत्सर्ग है गुमनाम जिनका।
पर गर्व से खड़ा है
गुमनाम भी वह नाम जिनका।।

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-03-2016) को "ख़्वाब और ख़याल-फागुन आया रे" (चर्चा अंक-2273) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar said...

Beautiful lines

यथार्थ

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