वो कोई और दिन थे
जब सैफई पर जाकर
सिमट जाती थी नदियाँ।
सूख जाता था पानी
सैफई को सींचकर।
अब बीत गये वो दिन
अब अपने-अपने गंतव्य को
पहुँचेगीं नदियाँ
अपने हिस्से के पानी से भरी हुयी।
अब सूखेगीं नहीं
बस जमीं का टुकड़ा सींचकर
क्योंकि अब उन्हें सींचना है
सोखाना नहीं स्वयं को।
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