महिला
साक्षात् सर्जना है।
सृष्टि का साकार रूप है।
प्रकृति की अन्तर्निहित
शक्ति है।
वह शक्तिहीन नहीं
शक्ति से ओतप्रोत है।
व्यक्ति, परिवार, समाज का
शक्तिस्रोत है।
उसमें अनुस्यूत है
प्रज्ञा, प्रभा, आभा, विभा
सृष्टि है उसकी अनुज्ञा।
उसके ही आतिथ्य से
भारतभाव आज भी
'अतिथि देवो भव' है।
वह शक्ति, सहनशीलता
कर्तव्य व उत्तरदायित्व की
स्वयमेव उद्भव है।
आँखों में नींद भरे
वह जागती रहती है।
उनींदी आँख लिये
चलती रहती है।
क्लान्त हो, श्रान्त हो
वह सश्रद्ध भाव ले
जीती रहती है।
निर्जीव में भी प्राण
प्रवाहित करती रहती है।
वह विना तार के
वीणा सी बजती है
विना झंकार के
खनकती रहती है।
वह विना सुर दिये
स्वर की देवी है।
क्योंकि वह
स्वर देती है जीवन को
भास्वर करती है
अन्तर्मन को।
बचपन से अन्तिम क्षण तक
वह राग भरती है।
रूप देती है।
बनाती है वे साँचे
रचती है वे ढाँचे
जिसमें सभ्यता प्रवाहमान है।
अभिमान नहीं करती वह
पर वह सृष्टि का अभिमान है।
वह ब्रह्म का अभिमान है।
वह सबका अधिष्ठान है।
इसलिये अपना शक्तिप्रदर्शन
करते हुए
नहीं घूमती।
वह उस अरे पर नहीं घूमती
जिस पर समाज का
एक बड़ा वर्ग घूमता है,
वह उस अरे पर नहीं घूमती
क्योंकि वह अरा
वह चक्र वो ही घुमाती है।।
आज उसके स्वरूप के
अभिज्ञान के लिये
हो रहे हैं प्रयास
बहुत बड़े - बड़े।
लोग उसे अज्ञानी, अनभिज्ञ मान
करते हैं सवाल खड़े।
पर वह न अज्ञानी है
न अनभिज्ञ है
वह जानती है उन सभी बातों को
जानती है उन सभी सवालों को
समझती है उन सभी विमर्शों को
सुनती है उन सभी वादों को
जिनका केन्द्र वह है।
पर वह जानते हुये भी
चुपचाप है
क्योंकि वह जानती है कि
यहाँ धुरी को किनारा
बनाने की बात है।
वह धुरी है
व्यक्ति के जीवन की धुरी है
परिवार की धुरी है
समाज की धुरी है
राष्ट्र की धुरी है
विश्व की धुरी है
सृष्टि की धुरी है।
उसे किनारा बनना मंजूर नहीं।
वह किनारा बने
इतनी दीन-हीन औ
मजबूर नहीं।
नमन उसके मन को
नमन उसके जीवन को
जो गर्त में भी हिमालय है
मरु में अम्बुधि है।
वात्सल्य की पयोनिधि है।
जीवन की परिभाषा औ परिधि है
सृष्टि चक्र की सन्निधि है।।
No comments:
Post a Comment