Monday, March 20, 2017

बहार है

बहार है
लेकिन
वसंत की नहीं।
यह बहार
प्रायः पाँच साल बाद
आती है।
पाँच साल बाद
महकते हैं वादे
नेक लगते हैं 'उनके' इरादे।
पटरी उड़ाने वाले
पटरी पर चलते नजर आते हैं
बहारों के पाँव भी
धरती पकड़ते हैं।
धूलि मस्तक पर चढ़ती
नजर आती है
नासिका धूलि
धूसरित होती है।
बारहमासी बसन्ती लोगों को
अन्य ऋतुओं का भी
आभास होता है।
यह भी पता चलता है कि
चीनी नहीं उगती
गन्ना उगता है।
आलू कारखाने में
नहीं बनती
खेत में उगती है।
बहुत सी बातें
बहुत सी रागें
जिन्हें वसन्त के
पक्षी न जानते हैं
न गाते हैं।
न जानना चाहते हैं
न गाना चाहते हैं।
वे अनजानी अनसुनी
अनकही अनदेखी बातें
वे सरस- नीरस राग
बता जाता है
सुना जाता है
सिखा जाता है
यह चुनावी वसन्त
जो पाँच साल बाद आता है।
इसके आने पर
पतझड़ भी
अपने झड़ते पत्ते
शाखाओं पर रोक
लेता है।
पर जिन गलियारों में
यह वसन्त आता है
उसमें नयी पत्तियाँ
ही नहीं शाखायें भी
तना छोड़ जाती हैं।
और अन्दर से छलनी तना
अपनी हँसी से
अपनी वाणी से
दुःख को छिपा
जनता को छलता जाता है।
यह वसन्त सबके लिये
बहार नहीं लाता।
पर यह सच है कि
इसमें भी कोयल
अपना बच्चा
कौवे के घोसले में
पलवाती है।
स्वयं मगन हो गाती है
और कौवे को मूर्ख बनाती है।।

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