आज हमारा चिन्तन
हमारा विचार
हमारी दृष्टि
इतनी संकुचित हो गयी है
या यूं कहें कि सिमटकर
कलुषित हो गयी है ।
कि सारी कलाओं को भूलकर
सारे गुणों को त्यागकर
हम इतने गुणग्राही हो गये हैं
अपने कानों को पकाना भूल गये हैं
और कच्चे कानों के साथ
जुबान का हर शब्द पकड़ना सीख गये हैं ।
हमसे डरकर
या हमारे भय से
शब्द अपने अर्थों को
विस्तार देना भूल रहे हैं ।
हर शब्द का
अक्षर-अक्षर का हम
स्थूल अंकगणितीय अर्थ निकालते हैं ।
और इस बात से फूल नहीं समाते
कि हम व्यंजना कर लेते हैं
और व्यंजना समझते हैं, जानते हैं ।
पर व्यंजना तो
शब्दों के बहुअर्थ में बसती है
अनेक अर्थ ग्रहण कर सँवरती है
मुखरित होती है ।
सीधा कह देना
सीधा अर्थ लेना
या सतही विद्वेषपूर्ण व्याख्या
व्यंजना नहीं है ।
व्यंजना एक उल्लसित शब्दार्थ है
एक रसास्वाद है
जो विद्वेष में
दम तोड़ देता है ।
शब्द सपाट हो जाते हैं
अर्थ तत्वहीन हो जाता है
वाक्य का महत्व खो जाता है
और संवाद कंटकाकीर्ण विवाद में उलझ जाता है।
ऐसे में अभिधा भी दयनीय लगती है
लक्षणा की दुर्गति होती है
व्यंजना मरणासन्न हो जाती है
ओर वाणी रसशून्य बनती है।
यह इन शब्दशक्तियों का शून्यकाल है
शब्दों के बेढंगे बाण देख
लगता है कि बुद्धि-विवेक का अकाल है।
बस सब बन रहे हैं सूरमा
कर रहे हैं नव-प्रयोग
जबकि उन्हें पता नहीं कि
शब्दों और भाषा के लिये
रच रहे हैं वे कालयोग।
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