आज
जब अमराईयों के बीच
सुंदर सान्ध्य बेला में
कौवे की काँव-काँव सुनी
तो मानो
एक तंद्रा टूटी
और भेद खुला
कि कोयल जानकर
सुरीले कंठ की आस में
हम जिसे पालते रहे
अपना मानते रहे
पुचकारते रहे
वह तो कोयल नहीं
कौवा निकला
कंठ से कर्कश
इरादों से कठोर
हृदय से धूर्त
बस रंग में कोयल जैसा
जिसके भ्रम में हम
कौवे को पालते रहे
सिर पर बिठाते रहे
... उफ्फ... हम भी कितने भोले हैं
कौवों_से_गुलजार_गुलशन
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