Tuesday, November 21, 2017

ज्योत्स्ना के आँचल में...

हर हृदय में भार इतना
बोझ न स्वीकार इतना
पर चले ही जा रहे हैं
मन भरे ही जा रहे हैं।
उनींदी आँखें प्रभात में
कदम आगे है बढ़ाना
क्लान्त वदन म्लान है मुख
पर है सबसे छुपाना।।
हँसी नकली हो गयी है
मुस्कुराहट खो गयी है
देखने में चिर हँसी है
चेहरे पर मुस्कान बसी है।
पर किसे बतायें हृदयगाथा
कि हँसना भी बेबसी है।।
आँसुओं को औ रुदन को
थकान औ क्रंदन को
मुस्कुराहट में दफ्न करना
आता है युवा-मन को।।
गाड़ी-बंगला-नोकर-चाकर सब हैं
भौतिक सुविधाओं की भरमार है
कहने के लिये कुबेर हैं सब
पर अंतस् बेबस है कंगाल है।
सच है धन से वैभव मिल सकता है
पर संतोष नहीं मिला करता।
हँसी सच में वहीं नहीं बसती है
जहाँ है अबाध कंचन बरसता।
अब भी वैभव और सुख का
वही पुराना आँकड़ा है
वही पुराना ठिकाना है
सुख शांति हँसी खुशी मुस्कान को
अब भी वैभव के कंधे की
जरूरत नहीं पड़ती।
अब भी ज्योत्स्ना के आँचल में
चाँद जहाँ साक्षी बनता है
वहीं सुख-शांति का संतोषी ठिकाना है।
बाकी सब तो माया है
मिथ्या है भ्रम जाल है, बहाना है।। 

1 comment:

Unknown said...

बहुत सुंदर...!

यथार्थ

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