Tuesday, November 21, 2017

ड्यौढ़ी

घर की चौखट
सब आवृत्त करती
सहज समेटे खड़ी हुयी है।
घर की उन सब बातों को
जो छोटी-छोटी बड़ी हुयी हैं।
कोठरी-कोठरी परिवार बँटा है
दीवारें भी चौकन्नी है
द्वार का शृंगार बँटा है।
हर मन में दीवार खड़ी है
मुंह में जंजीर जकड़ी है।।
सारे राग क्षीण हुये हैं
लगाव भी दूर हुआ है।
कल तक जिन पर
जिन का था स्नेह हाथ
आज वह धीरे-धीरे दूर हुआ है।
जिसका स्पर्श अमृत था
उसकी परछायीं भी
विष लगती है।
लख जिनको मन हर्षित होता था
उनकी उपस्थिति भारू लगती है।
ऐसी तार-तार दीवारें
जर्जर आँगन और रसोईं को
अपने अंक समेटे
वह घर की ड्योढ़ी खड़ी हुयी है
सारे अन्तर्द्वन्द्व लपेटे।
घर के सारे पंक समेटे
देखो पंकज बनी हुयी है
घर की ड्यौढी खड़ी हुयी है। 

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