Wednesday, November 22, 2017

झमाझम बरखा

झमाझम बरखा में 
जब वन-बगिया का 
हर पौधा झूम उठता है। 
तब क्या गमले के
अभागे पौधे
नहीं पछताते होगें 
क्या वे बरखा की बूंदे
नहीं चाहते होंगे। 
माना साल भर
खूब स्नेह उड़ेल गया है 
उन पर
खाद पानी का भी 
ख्याल रखा गया है। 
पर क्या 
खुद को सँवारने की चाहत में 
उनका आधार नहीं 
छीना है हमने
उनसे खुले गगन का
विस्तार नहीं छीना है हमने। 
स्वयं अनुकूलित हो न सके
वृक्षों को बोनसाई
बना दिया। 
विजयी मुस्कान ऐसी बिखेरी
लगा कि पूरा जंगल ही लगा दिया। 
वृक्षों को समेट दिया
पौधों की परिधि में 
अब वे तरस जाते हैं 
अपने पड़ोसी से नहीं मिल पाते हैं। 
तितलियाँ भी 
अब जुर्रत नहीं करतीं 
कि तनिक उन्हें 
देख आयें
जिनके इर्दगिर्द वे बसतीं।। 
एकाकी पौधा
मन मारकर रह जाता है 
अपने आसपास नजर
जब घुमाता है 
तो रेगिस्तानी वनों के
कैक्टस नजर आते हैं 
जिनसे वह दूरी ही बढ़ाता है। 
बेचारा व्यर्थ ही
सनकी सौन्दर्यबोध का शिकार
हो जाता है। 
वर्ष भर धुला पोछा होने पर भी 
रास्ते का धूलधूसरित पौधा
उसे मुँह चिढ़ाता है। 
क्योंकि वही धूलि उसका
जीवन है
वही उसका 
अपना वतन है। 
वन-बगिया को
गमले में उतारिये
पर पहले बगिया में उतर
कुछ वृक्ष तो लगाइये।। 
अपने पौधों का
संवाद तो कराइये। 
नहीं वे मर जायेंगे
और क्राइम भी नहीं होगा
क्योंकि पौधों का यूं
मरना-मारना अभी
संविधान का 
विषय नहीं बना। 
और न ही उनका
कोई गवाह रहा।

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