वो जी रहे हैं
अवांछित होकर
तिरस्कृत होकर
विष पीकर
धूल धूसरित हो
वे जी रहे हैं।
वे साँस ले रहे हैं
जबकि उनके फेफड़े
धूल के पहाड़ से
दब रहे हैं
वे जी रहे हैं।
अब भी वे विष पी रहे हैं।
प्राणवायु दे रहे हैं।
वे जी रहे हैं।
वे समादृत नहीं है
वे तिरस्कृत हैं
उपेक्षित हैं
फिर भी तिरस्कार सह
जी रहे हैं।
उनकी हरियाली
तभी नजर आती है
जब वर्षा
अपना स्नेह बरसाती है।
नहला देती है उनको
निखरता है उनका रूप
और वे चमक उठते हैं
चहँक उठते हैं।
तब लगता है
सच में वे जी रहे हैं।
शेष दिनों में
पूरे साल
यही लगता है कि
मूक हो वे बस
उपेक्षा औ प्रताड़ना
सह रहे हैं।
और बस जी रहे हैं
सिसककर नहीं
रोकर नहीं
दीन बनकर नहीं
अपितु उत्कट जिजीविषा के साथ
वे जी रहे हैं।
हमारे प्राण का आधार बुन रहे हैं।
No comments:
Post a Comment