अब भी अमावस की आहट
आकाश में दिखती है।
चन्द्र की छवि
म्लान सी दिखती है।
पर मन अमावसी नहीं होता
न डरता है, भयभीत होता
अब भी भादों है
पर्जन्य धमक रहा है।
चपला की चमक है
आकाश गरज रहा है।
लेकिन मन अब उतना
अधीर नहीं है।
अब अन्धकारमय
तकदीर नहीं है।
....... यह कहानी तो है
नगरों की
अट्टालिकाओं की
जगमगाती सड़कों और
चमचमाती गलियों की।
जहाँ जब भी वर्षा हो
मंगल ही लगता है।
कितनी भी पानी बरसे
कम ही दिखता है।
चट्टानी सड़कों और
स्फटिकवत् फर्शों से
पानी बहता है
और जाकर नगरों के बाहर
आश्रय खोजता है।
प्यासी रह जाती है
नगरीय धरती
और...
बाहर की भूमि मानों
झोपड़पट्टी बन जाती है
वर्षाजल के लिये
वह नट्टी तक भर जाती है।
फिर पानी उसके
सिर के ऊपर से
गुजरता है
और बाढ़ की विभीषिका का
समाचार फैलता है।
छपता है वह अखबारों में
और अखबार अट्टालिकाओं में
मेजों पर सजा रहता है
कोई अट्टालिका-स्वामी
दृष्टि नहीं डालता।
मानो न हो कुछ साबका।
बाढ़ का समाचार
टीवी में दिखता है
रिमोट तेजी से
चैनल बदलता है
क्योंकि उन अट्टालिकावासियों का
बाढ़ पीड़ितों से कोई
वास्ता नहीं होता।
..... पर
यदि बूंद-बूंद सोखकर
अंगुल-अंगुल पाटकर
शिलाओं का मजबूत
फाटक लगाकर
उन्होंने धरती को
गुलाम न बनाया होता
तो यूं पानी
सिर के ऊपर न आया होता।
आज उनके सिर डूबे हैं
जिनसे अट्टालिकाओं का
सरोकार नहीं है।
कल अट्टालिकायें डूबेंगी
क्योंकि अति प्रकृति को भी
स्वीकार नहीं है।।
@ममता त्रिपाठी
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