हम 'मैं' को 'हम' बोलने वाले
हम पुरबिया लोग
कब 'मैं' 'मैं' बोलने लगे
कब अपने बोल तोलने लगे
कब 'मैं' के दबाव से
'हम' दब गया।
और 'हम' 'मैं' बन गया
पता ही न चला।
'हम' से 'मैं'पर उतरकर
नये परिवेश में ढलकर
हम सभ्य कहलाये
जबकि हमारे यहाँ
'हम' सभ्य माना जाता था
सभ्यता की पहचान था।
इसीलिये हमारी भाषाओं में
'मैं' अनजान था।
आज हम 'कीजिये'के स्थान पर
'करो' सुनते हैं।
'किया'के स्थान पर
'करा' बोलते हैं
और कुछ वर्गों में शामिल हो
जश्न मनाते हैं।
लगता है 'मैं' और 'करा' बोलकर
हमारा पुरबियापन
धुल जायेगा
और पश्चिम हममें
निखरकर खिल जायेगा।।
पर अन्तस् में
'मैं' अखरता है।
'आइये'की जगह
'आओ' वज्रपात सा लगता है।
आज 'मैं' का अभ्यास कर
हम 'मैं' ही हो गये हैं
और 'मैं' की छोटी
न्यूक्लियर दुनिया में
हम खो गये हैं।
खो गयी है हमारे
'हम' की दुनिया।
हम 'मैं'मय होकर
दहाई, सैकड़ा, हजार से
इकाई बन गये हैं।
इसी इकाई में सिमटकर
हम रह गये हैं।
।
No comments:
Post a Comment