बड़े वृक्षों को
बाग-बगीचों को
यूकेलिप्टस की कतारें
निगल गयीं।
रुपहली धूप, शीतल छाँव से
आगे निकल गयी।
कमल और कुमुद का
घरौंदा छीन लिया
जलकुंभी की झुंडों ने
फूलों की फुलवारी
नागफनियों से भर गयी।।
सदानीरा नदी
न जाने कब
मौसमी हो गयी।
पक्षियों के घरौंदे
देखते-देखते छिन गये
उनके कलरव के दिन
ढल गये।
अब तो दाना डालने पर
चंद चाउर चुगने भी
वे नहीं आते
धन्य हैं कबूतर
जो तनिक कलरव मचाते।।
कौवा मामा
तिलहरी मौसी
अब स्मृतियों और
किंवदन्तियों में रहेंगे
केकीरव की हम बस
अपने संततियों से
कथा कहेंगे।
विजयदशमी को नीलकंठ
खोजेंगे
पर नीलकंठ न मिलेंगे।।
बहुत सी बातें ऐसी हैं
जो हमने कथाओं में
सुनी हैं।
बहुत सी ऐसी हैं
जिनकी हमारी आँखें
साक्षी बनी हैं।
पर अब बो सब
चित्रों में दिखेगा
किताबों में छपेगा
पर हमारी संपत्तियों को
देखने को नहीं मिलेगा।
उनको दिखाने के लिए
कोई चिड़ियाघर नहीं होगा
चित्रों के अतिरिक्त
अन्य माध्यम न होगा।।
आखिर हम किस ओर
जा रहे हैं।
पसीने में तर
गर्मी से बेहाल
शरद् पूर्णिमा मना रहे हैं।।
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