Friday, November 24, 2017

द्वादशी का चाँद

द्वादशी का चाँद
अपनी चाँदनी देखकर
प्रसन्न भी था
खिन्न भी था
एक साथ खिल रहा था
मुरझा भी रहा था
अपनी अभिवृद्धि पर 
इतरा भी रहा था
पर पूर्णिमा के बाद की
दुर्गति सोच
घबरा भी रहा था।। 
द्वादशी का चाँद
था सौन्दर्य से भरा हुआ
पाकर भी सब खोने से
डरा हुआ।। 
क्योंकि द्वादशी
त्रयोदशी - चतुर्दशी के बाद
उसको मिलना था पूर्णिमा का
चिरप्रतीक्षित साथ।।
लेकिन उस चिरप्रतीक्षा को
पूरा होता देखकर भी 
वह था उदास
कुछ धूमिल सा दिख रहा था
उसका उल्लास। 
क्योंकि पूर्णिमा पाने के बाद
जगती को पूर्ण ज्योत्स्ना से
नहलाने के बाद। 
फिर होना था एक अन्त
की शुरुवात।
पूर्णिमा से अमावस्या की ओर
बढ़ने की
दिन-दिन कलाओं के ढलने की
गाढ़ अंधकार में 
पुरजोर शक्ति से 
प्रकाशित होने की
गहन अमावस की ओर
एक-एक कदम
नियति संग कदमताल करने की। 
इसीलिए अपने
द्वादशी उल्लास पर भी
पूर्णिमा के आस पर भी
चाँद उदास था। 
पर फिर चमकते हुये
अपनी प्रभा बिखरते हुए
वह दिखा कुछ 
आश्वस्त होते हुये। 
सबने देखा उसका 
आत्मविश्वास लौटते हुये।
उसे अधिक चमक के साथ
पूर्णिमा की तरफ
बढ़ते हुये। 
सफलता का अमृत पीते हुये
क्योंकि वह जान चुका था
जीवन की गति
जीवन की सृष्टि
जीवन का उत्थान 
जीवन का पतन
और यह भी जान चुका था कि 
यही शाश्वत जीवन चक्र है
और उसकी गति
उसकी सफलता
उसका हर सोपान पर
चढ़ना-उतरना
सृष्टि चक्र का
शाश्वत प्रवर्तन है। 
इसी में संकोच है
इसी में विस्तार है
इसी में नव जीवन का
विस्तृत संसार है। 
इसलिये चाँद हँस रहा था
दुःखी नहीं था
आशाओं से भरा हुआ
उसका चेहरा 
विहँस रहा था
क्योंकि इस चक्र में 
वह एकाकी नहीं था। 



3 comments:

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा said...

शाश्वत जीवन का साक्षात्कार कराती सुंदर रचना

Mamta Tripathi said...

धन्यवाद सिन्हा जी

Unknown said...

Wonderful lines. It a great mam. जीवन को जीने के लिये यह चांद कितनी प्रेरणा देता है

यथार्थ

रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...