दीवारों से घिरे
छत से बँधे
घर में
रजाई ओढ़े
दिन काट रहे हैं
तो समझिये कि
आप शीत से
छिपकर
कड़कड़ाती ठंड से
बचकर
आधी रात जलते
कौरा से
आँख चुराकर
दिन काट रहे हैं
अपने में
सिमटकर।।
ऐसे सिमटने से
आप प्रेमचंद को
पढ़ लेंगे
पूस की रात के
अक्षरों पर
नजर गड़ा लेंगे
लेकिन कभी
महसूस नहीं कर पायेंगे
पूस की रात को
हल्कू की ठंड को
झबरा के
झबरे बालों की गर्माहट को
मनुष्य और पशु के
कठिन दिनों के साथ को
न अनुभव कर पायेंगे
शरद में झड़ी पत्तियों को
बटोरकर
अलाव जलाने
रहा शरीर से तनिक ठंड भगाने
का अनिर्वचनीय सुख
महसूस नहीं कर पायेंगे
कि जीवन के लिए आग
कितनी जरूरी है
कभी जानते नहीं पायेंगे कि
कुत्ते मानव के
क्यों इतने करीबी हैं।
कभी अंतर नही स्पष्ट कर पायेंगे
कि क्या कितना जरूरी है
यह भी नहीं समझ पायेंगे कि
आखिर हल्कू क्यों सोता रहा
क्यों नहीं जगा
और उसने क्यों नहीं हाँका
खेत चरते जानवरों को
क्यों उसने फसल
जिसे वह रखाने गया था
दहन होने दी?
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