Wednesday, November 22, 2017

अपना-अपना संसार

सबके अपने-अपने दायरे हैं 
अपना-अपना संसार है।
अपने ही बिम्ब हैं 
अपना ही विचार है।
उस संसार से बाहर
उस विचार से आगे
बढ़कर निकलकर सोचना
उनको क्रांति लगती है 
अशान्ति लगती है ।
उस परिधि के बाहर
वे निकलना ही नहीं चाहते
बाहर की बात क्या
फुसफुसाहट भी सुनना नहीं चाहते।
उनको भय है कि कहीं 
उनका संसार भंग न हो जाये। 
कहीं वे न पहन लें
परिधि के बाहर का परिधान
और कहीं उनपर दायरे से 
बाहर का रंग न चढ़ जाये। 
यही भय उन्हें विस्तार लेने नहीं देता
व्यक्तित्व विराट् बनने नहीं देता
संकुचन से प्रसार करने नहीं देता।
और संकुचित परिधि को
पूर्ण ब्रह्मांड समझ
उसी में त्रिज्या - परिधि करते हुये 
जीवन बीत जाता है। 
पर विश्व नहीं नजर आता
विस्तार छूट जाता है।

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