सबके अपने-अपने दायरे हैं
अपना-अपना संसार है।
अपने ही बिम्ब हैं
अपना ही विचार है।
उस संसार से बाहर
उस विचार से आगे
बढ़कर निकलकर सोचना
उनको क्रांति लगती है
अशान्ति लगती है ।
उस परिधि के बाहर
वे निकलना ही नहीं चाहते
बाहर की बात क्या
फुसफुसाहट भी सुनना नहीं चाहते।
उनको भय है कि कहीं
उनका संसार भंग न हो जाये।
कहीं वे न पहन लें
परिधि के बाहर का परिधान
और कहीं उनपर दायरे से
बाहर का रंग न चढ़ जाये।
यही भय उन्हें विस्तार लेने नहीं देता
व्यक्तित्व विराट् बनने नहीं देता
संकुचन से प्रसार करने नहीं देता।
और संकुचित परिधि को
पूर्ण ब्रह्मांड समझ
उसी में त्रिज्या - परिधि करते हुये
जीवन बीत जाता है।
पर विश्व नहीं नजर आता
विस्तार छूट जाता है।
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