अपनी परिभाषाओं के
स्वयंभू साँचों में
हम दूसरों को कब तक
भला परिभाषित करेंगे?
कब हम जला पायेंगे
वे आत्मनिर्भर दिये
जो स्वयं स्नेह-सिंचित करेंगे?
कब हम छोड़ेंगे लत
बेवजह बैसाखियाँ लगाने की?
कब मौलिक होगी प्रक्रिया
सीखने- सिखाने की?
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