कितने बीज सिक्त हो चिटके
कितने अंकुर फूटे।
कितने पौधों ने कर खोले
कितने निकले झूठे।।
कितनों को मिला नवजीवन
कितनों का सूखा है जीवन
कितने हुये गतिमान अग्रसर
कितने विलीन अस्तित्व खोकर।
हर पौधे की अलग कहानी
वही हवा है वही है पानी।।
पर जिसमें जीने की इच्छा है
जिसमें उत्कट जिजीविषा है
जी लेता है दब जाने पर
जी लेता है कुचले जाने पर
पुनः जमीन खोज लेता है
जमीन से उखाड़े जाने पर।
उसमें वह द्युति है गति है
जीवन का संगीत मधुर है
मर-मर कर भी जी लेता है
यह उसका स्वाभाविक गुण है।।
यही नहीं वह जीकर भी
अपने को दस बीस बनाता
जितना उसे काटते जाते
वह उतना ही शीश बनाता।।
अमरबेल साथ आच्छादित करता
वटवृक्ष सा दशरूप बनाता।
जितनी बार उखाड़ा जाता
और सशक्त हो भूमि पकड़ता।
यह उसकी जीने की गति है
यह ललक उसीकी उसकी मति है
कि उच्छेद से अधिक आच्छादित होता
अवसाद नहीं आह्लादित होता।।
बहुत से अंकुर फूटे
बहुत से बीज हैं रूठे
पर वे बीज अंकुरित होकर
अपने पैर स्वयं जमाते।
कभी न उनके पैर उखड़ते
उखड़ उखड़ कर फिर जम जाते।।
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-12-2017) को
"रंग जिंदगी के" (चर्चा अंक-2818)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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