Monday, December 11, 2017

सीपी

दृग में उमड़ता महासमुद्र 
उतर आती है सीपियां
खनकती हैं सीपियां
चमकती हैं सीपियां
चहँकती है सीपियां 
कुछ रिक्त कुछ मुक्ताभरी
जल उर्मियों से निकलती हैं सीपियां 
उर्मियाँ तटों पर उड़ेलती हैं सीपियां 
पर ये खनक, ये चमक
ये चहँक, ये चकमक
आसान नहीं होती। 
इसके लिए अंधकार भरे
हजारों दिन जीतीं हैं सीपियां 
समुद्री लहरों को झेलती हैं सीपियां। 
समुद्र गर्भ में गंभीरता को सहती हैं सीपियां। 
फिर मुक्ता उगलती हैं सीपियां। 
मूल्यहीन का मूल्य तय करती हैं सीपियां।

2 comments:

Mamta Tripathi said...

बहुत बहुत धन्यवाद शास्त्री जी

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)

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