उनके घर की बात क्या करें
जिनके घर में दीवारें हैं।
खंड-खंड में सभी बँटे हैं
धुरी ध्वस्त है
आँगन त्रस्त है
सबके अपने-अपने किनारे हैं।
उनके घर की बात क्या करें
जिनके घर में दीवारें हैं।
पेंदी में है छेद गहन
खोखले नजर-नजारे हैं।
उनके घर की बात क्या करें
जिनके घर में दीवारें हैं।।
दीवारों में सिमटी आँखें
दूरदृष्टि कब पाती हैं
तूतू मैं-मैं में उलझी जिंदगी
दूर देख कब पाती है?
उनके मन संतापित हैं
जख्म बहुत ही गहरे हैं।
उनके घर की क्या हम बात करें
जिनके घर में दीवारें हैं।।
जिनके घर में दीवारें हैं।
खंड-खंड में सभी बँटे हैं
धुरी ध्वस्त है
आँगन त्रस्त है
सबके अपने-अपने किनारे हैं।
उनके घर की बात क्या करें
जिनके घर में दीवारें हैं।
पेंदी में है छेद गहन
खोखले नजर-नजारे हैं।
उनके घर की बात क्या करें
जिनके घर में दीवारें हैं।।
दीवारों में सिमटी आँखें
दूरदृष्टि कब पाती हैं
तूतू मैं-मैं में उलझी जिंदगी
दूर देख कब पाती है?
उनके मन संतापित हैं
जख्म बहुत ही गहरे हैं।
उनके घर की क्या हम बात करें
जिनके घर में दीवारें हैं।।
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (04-01-2018) को "देश की पहली महिला शिक्षक सावित्री फुले" (चर्चा अंक-2838) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
नववर्ष 2018 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूूूूूबसूरत रचना ममता जी,
दीवारों में सिमटी आँखें
दूरदृष्टि कब पाती हैं
तूतू मैं-मैं में उलझी जिंदगी
दूर देख कब पाती है?
गजब.....
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