Tuesday, March 13, 2018

आत्मप्रकाशन

तुम धूप-छाँव से भयभीत भले
पर रहना तुमको इसी तले।
यह वह अम्बर है जो शाश्वत है
यह वह अधिष्ठान जो अक्षत है।
कुछ दिन दुखदायी लगता है
पर सुख-स्रोत यहीं पर रहता है
यह है जग का विस्तृत वितान
विविध लीलाओं का आसमान
क्षिति से क्षितिज तक दिखता है
पग बढ़ाते ही दूर हो जाता है।
यह है वह मिलन बिंदु
वह अद्भुत सम्मिलन बिन्दु।
जिसमें पूर्णता झलकती है
कुछ पूर्णविराम दिखता है
पर जितने नेत्र भटकते हैं
उतना ही यह बढ़ता है।
इसधूप-छाँव औ क्षितिज की
आभासी पूर्णता में जीवन है
यही विचार का केन्द्र-बिन्दु है
इसी से अनुप्राणित चिन्तन है।
यह वह चिन्तन की धारा है
जिसमें कुछ नवोन्मेष कुछ नूतन है
यही वह प्रकाशबिन्दु है
जहाँ आत्मवंचना नहीं, आत्मप्रकाशन है।
@ममतात्रिपाठी

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