Thursday, March 15, 2018

आशादीप

सूखे पत्तों सी हरी घास पर,
आशाओं के बिखर गए पर,
किसे पता सूखे पत्तों से,
सौन्दर्यदीप ज्वलित होता है,
किसे पता यह वो सीपी है।।
गर्भ में जिसके मोती पलता है।।
यहाँ प्राणहीन भी प्राणवान् है
सौंदर्य शाश्वत दीप्तिमान है
प्रश्न न केवल शुष्क पर्ण का
है सांख्य-पुरुष ही पुरुष यहाँ
लीलाधर प्रकृति प्रधान है।

आशाओं के तृण जब जलते
नहीं पूछते स्नेह कहाँ है?
पवन-प्रवाह में धधक - धधक कर
नहीं पूछते नेह  कहाँ है?
आखिर जलना तो जलना है,
क्यों स्नेह पवन में भेद करें,
जब यह जीवन ही छलना है।

सूखे पत्तों का मूक निमंत्रण
नव जागृति के प्रति आमंत्रण,
तब तक ये दीप जला करता है।
जब तक स्नेह मिला करता है।।

निष्कम्प वर्तिका सदा रहे
ऐसा संयोग कहाँ होता है?
फिर यह तो गहन कलयुग
न सतयुग, द्वापर, त्रेता है।

एक प्राण की ज्योति अटल है,
निविड़ निशीथ में निष्कम्प अचल है।
राग-द्वेष सरोकार रहित है,
पूरी तरह विकार रहित है।
चाहे कितने भी घट बदलें
पथ से किञ्चित् न विचलित है।।
ज्योति यही शाश्वत है जग में
निशा दिवस की यह है साक्षी।
शाश्वत  सत्य यह समझ न पाता
मानव शिशु, चिर महत्वाकांक्षी।।
@ममतात्रिपाठी, मार्च-2009

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-03-2017) को "छोटी लाइन से बड़ी लाइन तक" (चर्चा अंक-2912) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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