Saturday, March 10, 2018

समय बतायेगा

हरी-हरी दूब खो गयी है
हरी कालीन बिछी हुयी है
हरियाली सबको चाहिये
पर प्रकृति से ठनी हुयी है।।
सूर्य का प्रतिस्पर्द्धी मानव
आज सभ्य बना हुआ है
नाप लेगा वह उस आकाश को
जो वितान बन पृथ्वी पर तना हुआ है।
आज उसके पाँव
भूमि-भौम नाप रहे हैं
कुछ भी करते हुये
उसके हृदय न काँप रहे हैं।।
जीवन को हर ओर वह
खोजता फिर रहा है।
पृथ्वी के जीवन को
विनाश की ओर ले जा रहा है।
विडम्बना है उसकी।।
जो है उससे परे देखना।
अनन्त कामना है उसकी।
हम बन रहे हैं
बिगड़ रहे हैं
चढ़ रहे हैं विकास की सीढ़ियाँ
या विकसित सीढ़ियों से।
स्खलित हो नीचे उतर रहे हैं।
अधः की ओर गति कर रहे हैं।
यह विकास है या विनाश
समय बतायेगा।
हमारा अस्तित्व मिटेगा या कि
हमारा भी इतिहास होगा।
यह समय बतायेगा।
पर हाँ यह हमारी ही करतूत है कि
बर्फ में दबे जीवाणु विषाणु।
गति करने लगे हैं
विनाश की ओर
नयी गति भरने लगे हैं
हम जा रहे हैं
महामारियो की ओर
फिर प्रलय की ओर।
यह सृष्टि कि आरम्भ होगा।
या अन्त।
यह समय बतायेगा।
पर हाँ अब हमारी फैल रही है ताण्डवी रोर
त्र्यम्बक अब जगने वाले हैं
योगनिद्रा से उठने वाले हैं
जलेगा विश्व या उस अर्चि को सह
बचेगा
यह तो समय ही कहेगा।

। । 

6 comments:

radha tiwari( radhegopal) said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-03-2018) को ) "नव वर्ष चलकर आ रहा" (चर्चा अंक-2907) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

kuldeep thakur said...

जय मां हाटेशवरी...
अनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 13/03/2018 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

Mamta Tripathi said...

धन्यवाद कुलदीप जी

Mamta Tripathi said...

धन्यवाद राधा जी

दिगम्बर नासवा said...

प्राकृति से ऐसे ही मजाक करता रहा मानव तो शिव को जागने में समय नहीं लगेगा ...
सही कहा अहि आपने ... मानव सभ्य बन कर सभ्य नहीं है ...
प्रभावी रचना ...

पल्लवी गोयल said...

सुंदर रचना ।

यथार्थ

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