Saturday, March 10, 2018

विचारों के उद्यान में

विचारों के उद्यान में
प्रतिक्षण बदलती हैं ऋतुएं।
शरद् और वसन्त
रूप धरती हैं भावनायें।।
व्यथा के मेघ बनने की
प्रबल होती संभावनायें
और बरस पड़ती हैं
मेघ की काली घटायें।
भावों का संघनन
अश्रुओं में टपकता है।
शब्दों में बरसता है।
और फिर भावभूमि का
संकुचन मिटता है।
हृदय का क्षेत्र
विस्तार पाता है।।
मानस-जगत् में
ऋतुएं बदलती हैं।
पतझड़ में
पत्तियाँ झड़ती हैं।
वसन्त में
सम्भावनाएं खिलती हैं।
कोमल कोपलें
कर खोलती हैं।

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