Saturday, March 7, 2020

बेटियाँ

निर्जन वन में
पलाश की तरह खिलती हैं बेटियाँ
रात में भी
रातरानी सी महकती हैं बेटियाँ
न चाहते हुये भी
हथेली में
मेंहदी सी रचती हैं बेटियाँ
मौन होकर भी
घंटे की अनुगूँज बनती है लड़कियाँ
लड़कियाँ खेत के जौ सी हैं
ज्वार, बाजरे, अलसी, राँगीं सी हैं
विस्मृत कर देने पर
याद आती हैं लड़कियाँ।
धान के लहलहाते पौधों
सी हैं लड़कियाँ
उगती हैं जहाँ
उससे दूर उखाड़कर
ले जाने पर
खिलखिलाती हैं लड़कियाँ।
-ममता त्रिपाठी। 7/03/2020

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर और सार्थक रचना।

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा said...

बेहतरीन रचना, मन को छू गई ।

मुझे तो बस इतना पता है कि माँ नहीं होती तो मैं नही होता और पत्नी नहीं होती तो मेरे बच्चे / बेटियाँ नहीं होती। इसकी पटाक्षेप में नानी व दादी की भूमिका कैसे भूल सकता हूँ ।

एक पुरुष तो महज कड़ी की भाँति है। हमारा पूर्ण अस्तित्व ही आपकी वजह से है।

महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ।

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