आस्था का अथाह प्रवाह
कृपा और रक्षा की चाह
पत्थर-पत्थर देव बना
बता रहा तरने की राह।
वह वैतरणी जानी पहचानी
सबको उससे जाना है।
कोई तो सहाय्य हो जिसपर
धर पैर पार वह करना है।
दारुण दुःख से सभी हैं परिचित
भवासागर से पार चाहते
अपनी-अपनी क्षमता भर वे
हल्का करना भार चाहते
भरी पोटली छोड़ चलें वे
बस यही अंतिम बार चाहते
भवसागर को पार करे
पाये वे उद्धार चाहते।
थान-मंदिर, देव-देवखरा
न छद्म है न ही ढकोसला
इनके पीछे अर्थ छिपा है
नहीं हैं ये सब ढोंग-चोंचला।।
इन सबको गरियाने वालों
नीचा इन्हें दिखाने वालों
जब जीवन पर आयेगा तो
कहाँ भागकर जाओगे।
क्या आस्था नहीं जगाओगे?
क्या आत्मवंचना तब भी
अपना हाहाकार दिखायेगी?
क्या तब तुम्हारी मन-बुद्धि
प्रभु से गुहार न लगायेगी?
तब जिनपर तुम हँसते हो
असंख्य आक्षेप करते हो
उस मार्ग पर कैसे जाओगे
क्या छल-छद्म भरे इस जीवन की
इहलीला समाप्त कर दोगे
सत्य तिरस्कृत कर एकबार
फिर आत्मप्रवंचना चुनोगे?
या फिर छोड़ आत्महंता कायरता
प्रभु का शरण गहोगे?
आस्था-विश्वास का प्रश्न जटिल है
हर हृदय इसका उत्तर है।
पीपल-बरगद-थान औ चौरा
इसका प्रत्युत्तर है।
यह सम्बल है मानव मन का
पतवार बना है जीवन का।।
इस पर कुछ कहने से पहले
अपने अन्तस् में तनिक निहारो
मानव की अनुभूति को सोचो
फिर स्वार्थी वचन उचारो।।
मत करो स्वार्थ की आँधी में
किसी की आस्था पर चोट
पछताना पड़ेगा।
आज भले ही न सही
#ममतात्रिपाठी
No comments:
Post a Comment