Sunday, December 22, 2013

विकास या विनाश

जंगल उजड़ते रहे,
उपवन उजड़ते रहे,
खेत और खलिहान उजड़ते रहे...
बस...
अट्टालिकाओं के शहर सजते रहे,
इस सजावट की चाहत में,
बुलबुले बनते और सिमटते रहे ।

6 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (24-12-13) को मंगलवारीय चर्चा 1471 --"सुधरेंगे बिगड़े हुए हाल" पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Dr ajay yadav said...
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Dr ajay yadav said...
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Dr ajay yadav said...

सुंदर रचना |वृक्ष दिनों दिन कम होते जा रहे हैं |हमे पर्यावरण संतुलन हेतु वृक्षारोपण की अत्यंत आवश्यकता हैं ,जरूरत हैं की हर व्यक्ति अपने जन्मदिन के मौके पर एक पेड़ अवश्य लगाये |
www.drakyadav.blogspot.in

Dr ajay yadav said...

सुंदर रचना |वृक्ष दिनों दिन कम होते जा रहे हैं |हमे पर्यावरण संतुलन हेतु वृक्षारोपण की अत्यंत आवश्यकता हैं ,जरूरत हैं की हर व्यक्ति अपने जन्मदिन के मौके पर एक पेड़ अवश्य लगाये |
www.drakyadav.blogspot.in

Dr ajay yadav said...

सुंदर रचना |वृक्ष दिनों दिन कम होते जा रहे हैं |हमे पर्यावरण संतुलन हेतु वृक्षारोपण की अत्यंत आवश्यकता हैं ,जरूरत हैं की हर व्यक्ति अपने जन्मदिन के मौके पर एक पेड़ अवश्य लगाये |
www.drakyadav.blogspot.in

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