जिनके बलिदानों से सिञ्चित
हमने पायी यह स्वतन्त्रता।
जिनके शब्दों से हृदय तक
बसती केवल भारतमाता॥
दुःशासनों से मुक्त कराने का
असिधारा व्रत जिसने धारा था।
भारतमाँ का वीरपूत वह
निज माँ के नयनों का तारा था॥
गहन निशा, प्रकाश न क्षण भर,
माँ का जीना प्रतिपल दूभर ।
आततायी-संहार हेतु तब
किया निज प्राण न्यौछावर ॥
भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु
ने देशहित बलिदान दिया।
माँ के कष्टों से मुक्ति हेतु
प्राणोत्सर्ग प्रयाण किया॥
लोहित शोणित के बिन्दु-बिन्दु में
बस भारतमाता बसी रहीं।
बनी वह विजयिनी पताका
शिंजिनी वीरों की कसी रही॥
खिंची प्रत्यंचा तनी भृकुटी ।
भारत को मुक्ति मिली ॥
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