Friday, June 13, 2014

जैसा बोओ वैसा काटो

जो हलाहल बोता है वह अमृत न पीता है।
बात और है वो हलाहल अमृत हमकोि दिखता है।
किसे पता है किसके अन्तस् कितनी पीड़ायेँ सोयी हैँ?
किसे पता है किसकी आँखेँ कितना भीगी रोयीँ है?
किसे पता पथरायी आँखोँ मेँ कितने सुलग रहे अँगारे हैँ?
किसे पता विस्तीर्ण उदधि के कितने पुलिन किनारे है?
निखिल चुनौती अखिल जगत कि हृदय कुञ्ज से झाँक रही है।
झाँक-झाँककर नयी सम्भावना उत्कण्ठा से भाँप रही है।।
                                                  ममता त्रिपाठी

8 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (14-06-2014) को "इंतज़ार का ज़ायका" (चर्चा मंच-1643) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

Onkar said...

सुंदर प्रस्तुति

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति सच है विचारणीय और सराहनीय ..
भ्रमर ५

Harash Mahajan said...

बहुत सुंदर...



Asha Joglekar said...

किसे पता है किसके अन्तस् कितनी पीड़ायेँ सोयी हैँ?
किसे पता है किसकी आँखेँ कितना भीगी रोयीँ है?

बहुत ही सुंदर ममता जी और सत्य भी।

Vaanbhatt said...

सुन्दर रचना...

dr.mahendrag said...

सुन्दर प्रस्तुति

ममता त्रिपाठी said...

आप सभी को उत्साहवर्द्धन हेतु धन्यवाद।
शास्त्री जी आपका विशेष धन्यवाद...आप सच में भाषा को जिजीविषा देते हैं।

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