जो हलाहल बोता है वह अमृत न पीता है।
बात और है वो हलाहल अमृत हमकोि दिखता है।
किसे पता है किसके अन्तस् कितनी पीड़ायेँ सोयी हैँ?
किसे पता है किसकी आँखेँ कितना भीगी रोयीँ है?
किसे पता पथरायी आँखोँ मेँ कितने सुलग रहे अँगारे हैँ?
किसे पता विस्तीर्ण उदधि के कितने पुलिन किनारे है?
निखिल चुनौती अखिल जगत कि हृदय कुञ्ज से झाँक रही है।
झाँक-झाँककर नयी सम्भावना उत्कण्ठा से भाँप रही है।।
ममता त्रिपाठी
बात और है वो हलाहल अमृत हमकोि दिखता है।
किसे पता है किसके अन्तस् कितनी पीड़ायेँ सोयी हैँ?
किसे पता है किसकी आँखेँ कितना भीगी रोयीँ है?
किसे पता पथरायी आँखोँ मेँ कितने सुलग रहे अँगारे हैँ?
किसे पता विस्तीर्ण उदधि के कितने पुलिन किनारे है?
निखिल चुनौती अखिल जगत कि हृदय कुञ्ज से झाँक रही है।
झाँक-झाँककर नयी सम्भावना उत्कण्ठा से भाँप रही है।।
ममता त्रिपाठी
8 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (14-06-2014) को "इंतज़ार का ज़ायका" (चर्चा मंच-1643) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सुंदर प्रस्तुति
बहुत सुन्दर प्रस्तुति सच है विचारणीय और सराहनीय ..
भ्रमर ५
बहुत सुंदर...
किसे पता है किसके अन्तस् कितनी पीड़ायेँ सोयी हैँ?
किसे पता है किसकी आँखेँ कितना भीगी रोयीँ है?
बहुत ही सुंदर ममता जी और सत्य भी।
सुन्दर रचना...
सुन्दर प्रस्तुति
आप सभी को उत्साहवर्द्धन हेतु धन्यवाद।
शास्त्री जी आपका विशेष धन्यवाद...आप सच में भाषा को जिजीविषा देते हैं।
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