जिंदगी
कभी चलना नहीं जानती थी
चलना सीखा
कुहनियों पर खिसकी
घुटनों बल चली
लड़खड़ाकर उठी
सँभाला कुछ हाथों ने
खड़ी हुयी
पैरों पर चली
और आगे बढ़ी
जिंदगी
पालकी में बैठी
साइकिल पर चढ़ी
बाइक पर गतिमान हुयी
जिंदगी।
मोटर कार पर हुयी सवार
रेलगाड़ी में
पैसेंजर से लेकर
शताब्दी तक में हुयी सवार
जिंदगी
बढ़ाती रही गति
बढ़ाती रही रफ्तार
जिंदगी
हवाओं से बातें करने
वायुवान से
हवा और बादल को
चीरती
उनकी स्थिति को भाँपती-तौलती
अल्पसमय में दूरियों को नापती
जिंदगी
गति से प्रतिस्पर्धा करती
अपने गति में डूबी जिंदगी
इतनी आगे निकल गयी
गति की चाह में
गति के प्रवाह में
कि जिंदगी ही न रही जिंदगी।
विस्मृत हो गये
या गति की फेर में
पीछे रह गये
वे लड़खड़ाते हाथ
जो गति सम्हालते थे
जिंदगी सँवारते थे।
इस गतिज ऊर्जा के लिये
बासी हो गयीं वे बातें
मर गयीं वो स्मृतियाँ
भूल गया यह गतिमान
रेंगने उठने गिरने लड़खड़ाने
और चलने की विभिन्न स्थितियाँ
आज इसे नाज़ है कि
आकाश नापती है जिंदगी
हवा से बातें करती है जिंदगी
और अधिक गति में
बहना चाहती है जिंदगी।
@ममतात्रिपाठी
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