जो प्रतिष्ठा शेष है
उसको रखो।
सुधा के धोखे
हलाहल मत चखो।
तुम नीलकंठ नहीं हो
कि कंठ में विष स्थिर करोगे
अगर अब न रुके-सम्हले।
तो अपने संहार की कथा
तुम्हीं लिखोगे।
इसलिये जो बचा है
उसे बनाये रखो
अपने पैर को
जितनी चादर है
उतने में ही समाये रखो।
सुधा के धोखे हलाहल मत चखो।
3 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-12-2017) को "पढ़े-लिखे मुहताज़" (चर्चा अंक-2805) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया
बहुत बढिया रचना.
कलयुग में कपटी और दुरात्मा लोग हलाहल को सुधा रूप में ही परोसते हैं और भोले भाले लोग धोखा खा जाते हैं वे अपना नुकसान कर बैठते हैं ऐसे लोगों से बचना जरूरी हो जाता है. इस सुन्दर रचना के लिए बधाई
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