दिन ढलने पर
ढबरी, चिराग नसीब न था।
सबेरा कभी
जिनके करीब न था।
कभी खरीदी न
एक लालटेन
वो जो इतना गरीब न था।।
आज उनके दरवाजे पर लगे
बल्ब सूरज को
आँख दिखाते हैं
चंद्रमा से आँख मिलाते हैं।
चकाचौंध में वे
इतने खोये हैं कि
चौबीसो घंटे बल्ब जलाते हैं।
अब भूल गये हैं
रोशनी के एक कतरे की कीमत
जो शाम ढलने से पहले खाते थे
अब आधी रात बाद खाते हैं।
सरकार की खैरात में
डूबते-उतराते हैं।
कल तक थे अँधेरे में
अब सूरज को आँख दिखाते हैं
कल तक वंचित थे
अब अहर्निश प्रकाश जलाते हैं
जिनमें कल शरीक थे
आज उन्हीं वंचितों का
हक मारते हैं।
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