Tuesday, November 21, 2017

मशीनीकरण एवं हमारी भावनायें

मशीनीकरण के युग में
हम इतने आगे निकल गये हैं
कि हमारे शब्द
और हमारी भावनायें भी
 मशीन बनकर रह गये हैं।
अब शब्दों और भावों के
वे टकसाल नहीं
जो शब्दों को माँजकर
भावों को आकार दे
एक नया रूप गढ़ते थे
और नयी भावनाओं की
सम्भावनाएं मुखर होती थीं
पुरानी लीक से अलग
नयी लीक बनती थी
जिसमें सनी रहती थी
पुरानी खुश्बू
पर नयी उमंग रहती थी।
ठहराव नहीं वहां
प्रवाह दिखता था
शब्दों का भावनाओं का
भावों का और
नयी नवेली कथाओं का।
सब जीवन्त लगता था
बिना किसी बंधन के
अनन्त लगता था।

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