Wednesday, November 22, 2017

वर्षा आयी

वर्षा आयी
उमड़-घुमड़ बरसी
कभी चपला चमकी
कभी मेघ गरजे
कहीं सिक्त धरती
कहीं धरा तरसे
कहीं विपुल प्लावन
कहीं अब भी बुलावन
वर्षा तो आयी
सब जगह आयी
कहीं पूरे मन से
कहीं अधूरेपन से
पर सींचा सभी को
घर को
उपवन को
बाग को बगीचे को
वन और कानन को
घूरे के धतूरे को
अरण्डी के पल्लव को
तिरस्कृत मदार को
कूड़े के पहाड़ को
सबको नहलाया धोया
नवीनतम वस्त्र पहनाया
प्रकृति को रंग दिया
धानी-हरे-कजरारे
नूतन परिधान में 
भेद नहीं किया
अट्टालिका कुटीर में 
खेत खलिहान में। 
नहीं देखा बीज का
अधिष्ठान और वंश
सबको अंकुरण का
असीम आकाश दिया
सबके भविष्य को
बराबर प्रकाश दिया। 
खोलकर अंजुरी
उड़ेला जल
विना भेदभाव
यही है सनातन 
अधिष्ठान का स्वभाव
यह प्रकृति का वात्सल्य है 
हर युग हर देशकाल में 
अमिट है अतुल्य है। 
पर... 
कुछ लोगों का वश चले तो
बूंदे भी खरीद लें
वर्षा और सावन को
बंधक बना लें
और प्रबंधन की एक 
फैक्ट्री लगा लें। 
पर गनीमत है उनकी
इतनी बिसात नहीं 
पानी को कर सकें मुट्ठी में 
इतनी औकात नहीं।

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