Wednesday, November 22, 2017

पत्थर पर भी उग आती है दूब

सालों से धरे
कठिन पत्थरों के बीच
थोड़ी सी माटी
ढूँढ़ती है दूब
तनिक सी हवा
और रंचाभर नमीं
पा पनपती है दूब
मुट्ठी भर रोशनी के लिए 
अंकुर ले
अंजुरी आँचल बना
आगे बढ़ती है दूब
पत्थरों के कठिन
काले साये से
कठोर काया से
बड़ी मुश्किल से
थोड़ा झाँकती है दूब
यह दूब का
गवाक्ष-दर्शन
आलोक-अवलोकन
कहानी है एक 
उत्कट जिजीविषा की
उन्नत अभिलाषा की
अदम्य शौर्य और
अटूट आशा की 
जिसे जीती है दूब
जिसे पाती है दूब
और अंततः
पाथर पर भी
उग आती है दूब
@ममतात्रिपाठी

No comments:

यथार्थ

रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...