सालों से धरे
कठिन पत्थरों के बीच
थोड़ी सी माटी
ढूँढ़ती है दूब
तनिक सी हवा
और रंचाभर नमीं
पा पनपती है दूब
मुट्ठी भर रोशनी के लिए
अंकुर ले
अंजुरी आँचल बना
आगे बढ़ती है दूब
पत्थरों के कठिन
काले साये से
कठोर काया से
बड़ी मुश्किल से
थोड़ा झाँकती है दूब
यह दूब का
गवाक्ष-दर्शन
आलोक-अवलोकन
कहानी है एक
उत्कट जिजीविषा की
उन्नत अभिलाषा की
अदम्य शौर्य और
अटूट आशा की
जिसे जीती है दूब
जिसे पाती है दूब
और अंततः
पाथर पर भी
उग आती है दूब
@ममतात्रिपाठी
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