कभी - कभी
चिराग तले अँधेरा होता है
लेकिन
जगमगाती बत्तियों में पले बच्चे
न समझ पायेंगे
उस चिराग को
न अँधेरे को।
जुगुनुओं को वे पढ़ेंगे
किताबों में
पर जुगुनुओं की चमक
बस रहेगी उनके
ख्वाबों में।
वे उसे देख नहीं पायेंगे
और
महसूस नहीं कर पायेंगे।
जुगनुओं को जानने के लिये
उन्हें देखने के लिये
पीपल का हाहाहूत पेड़ चाहिये
सावन-भादों-क्वार की
उमस भरी
पसीने से तर
कृष्णपक्ष की रात चाहिए।
घर का खुला आँगन चाहिये।
आँगन में चारपाई चाहिये
और उससे
अश्वत्थ का सीधा
दर्शन चाहिये।
कथा-कहानियों के बहाने ही सही
थोड़ा रात्रि जागरण चाहिए।
अब सारी ऋतुएं
कपड़ों के रंग
और बच्चों के ढंग बदलते
स्कूल में बीतती हैं।
तो भला जुगुनुओं की चमक
कैसे दिखे
कैसे बच्चें
उजाले को देखें
और अँधेरे का सौन्दर्य परखें।
इसीलिए बेचारे बच्चे
पढ़ते हैं
चिराग तले अँधेरा
पढ़ते हैं
जुगुनुओं का बसेरा
पर कभी उसे
अनुभव नहीं कर पाते
कभी उसे जान नहीं पाते
कभी उन शब्दों के अर्थ तक
नहीं उतर पाते।
बस दोहराते हैं
और रटते हैं।
इसीलिए कृत्रिमता में
ऐसे ढलते हैं
कि बनतू बन जाते हैं।
अरहर-चना-मटर
किसी की भी दाल हो
उसे यलो दाल कहकर
निकल जाते हैं।
शायद स्कूलों में
यह अज्ञान
या अज्ञान-प्रदर्शन
ज्ञान की पहचान
माना जाता है।
या बताया जाता है।
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