Thursday, November 23, 2017

पुत्री


घर भरा,  आँगन भरा है।
पूरा जनसमुदाय खड़ा है।
फिर कुछ अभी अधूरा है
पैजनियाँ बिन सब सूना है।।
अधर-अधर पर हँसी बसी है
हर मुख पर मुस्कान खिंची है
फिर भी कुछ इच्छा अतृप्त है
जिसमें सबकी जान बसी है।।
उसके आने से शोभा बढ़ती
चिड़ियों सा कलरव वह करती
एक चमक है उसमें अद्भुत
जो उसमें नित मुखरित होती।।
उसके रहने से षड्ऋतु है
उसके रहने से संस्कृति है।
उसके रहने से नवरस है
उससे ही यह संसरित संसृति है।।
वह नवरस है वह मधुरस है
वह सप्तस्वरों में झंकृत है
वह पुत्री है समरस-सरस है
वह आद्याधार समादृत है।।
उस आधार बिना आधेय हीन है
जगती यह प्राण-विहीन है
उससे ही सृष्टि नित-नवीन है
आधार वही चिर-प्राचीन है।। 

11 comments:

जयकृष्ण राय तुषार said...

सुंदर कविता

Unknown said...

Bahut sunder kavita

Sonali saini said...

Beautiful poem mam.
बहु बहु शुभाशय:

Unknown said...

Nice one Didi

Mamta Tripathi said...

धन्यवाद भाग्यधर जी

Mamta Tripathi said...

धन्यवाद सोनाली

Mamta Tripathi said...

धन्यवाद

Mamta Tripathi said...

धन्यवाद

nishant said...

bahut sundar didi

nishant said...

bahut sundar didi

बीना said...

अति सुन्दर

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