घर भरा, आँगन भरा है।
पूरा जनसमुदाय खड़ा है।
फिर कुछ अभी अधूरा है
पैजनियाँ बिन सब सूना है।।
अधर-अधर पर हँसी बसी है
हर मुख पर मुस्कान खिंची है
फिर भी कुछ इच्छा अतृप्त है
जिसमें सबकी जान बसी है।।
उसके आने से शोभा बढ़ती
चिड़ियों सा कलरव वह करती
एक चमक है उसमें अद्भुत
जो उसमें नित मुखरित होती।।
उसके रहने से षड्ऋतु है
उसके रहने से संस्कृति है।
उसके रहने से नवरस है
उससे ही यह संसरित संसृति है।।
वह नवरस है वह मधुरस है
वह सप्तस्वरों में झंकृत है
वह पुत्री है समरस-सरस है
वह आद्याधार समादृत है।।
उस आधार बिना आधेय हीन है
जगती यह प्राण-विहीन है
उससे ही सृष्टि नित-नवीन है
आधार वही चिर-प्राचीन है।।
11 comments:
सुंदर कविता
Bahut sunder kavita
Beautiful poem mam.
बहु बहु शुभाशय:
Nice one Didi
धन्यवाद भाग्यधर जी
धन्यवाद सोनाली
धन्यवाद
धन्यवाद
bahut sundar didi
bahut sundar didi
अति सुन्दर
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