उमड़-घुमड़कर
ये बदरी
यूं नहीं आती बदरी
वह आती है
जलभरी
और धरा सिक्त करती है
सबको तृप्त करती है।
यूं नहीं आती बदरी
समुद्र से स्नेह ले
हवाओं का प्यार पा
अपना प्यार
उड़ेलती बदरी
यूं नहीं आती बदरी
साल भर का श्रम समेटे
समुद्र का धन समेटे
वायु का तन समेटे
आती बदरी
यूं नहीं आती बदरी।
यूं नहीं बरसती बदरी
उसके मन को
आर्द्र होने के लिये
संघनन के लिये
पर्वतों का पुष्ट
साथ उसे चाहिये
नगाधिराज हिमालय का
हाथ उसे चाहिये
यूं किसी से हाथ नहीं
मिलाती बदरी
यूं नहीं आती बदरी
पर्वतराज को देखकर
द्रवित हो
स्नेह सिक्त हो
अपने स्नेह और
दुलार को बिखेरती बदरी
वात्सल्यमय कहलाती बदरी
यूं नहीं आती बदरी।
@ममतात्रिपाठी
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